मयार
कबीर - मुझसे गलती हो गयी। मुझे माफ़ कर दो शमा। मैंने दूसरों के बहकावे में आकर ये रिश्ता नाकबूल किया था। मैं बस अच्छी तरह देख-परख कर ही ये शादी करना चाहता था।
शमा - क्या परखने का हक़ सिर्फ मर्द को होता है ? अगर औरत मर्द के मयार पर पूरा उतरे तभी वो काबिले कबूल है वरना नहीं ? क्या औरत का कोई मयार नहीं होता ?
कबीर- नहीं नहीं... मैंने ऐसा कब कहा।
शमा - अगर हम औरतें तुम्हें परखने लगें तो तुम में से कोई भी शादी के काबिल नहीं रहेगा।मेरा भी कोई मयार है....जिस पर अब तुम खरे नहीं उतरते।
कबीर - अच्छा अब भूल भी जाओ सब कुछ और जल्दी से इस रिश्ते को कबूल कर लो।
शमा - अगर मुझसे मोहब्बत करते तो मेरे किरदार पर शक नहीं करते। नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी कमजोर मुनाफिक मोहब्बत। मुझे मजबूत किरदार का आला मर्द चाहिए तुम जैसा बुजदिल नहीं। अब ये रिश्ता मुझे कबूल नहीं है। तुम जा सकते हो अब।
शमा के बाबा ने गर्व से शमा को देखते हुए अंदर जाने को कहा और कबीर अपनी अम्मा के साथ सर झुका कर दरवाज़े से बाहर निकल गया।
*मयार -कसौटी