अचानक कल बाज़ार में मेरी मित्र सना अपनी छोटी बहन के साथ मिली।सना का हाल ही में विवाह हुआ था।मुझे महसूस हुआ कि विवाह के पश्चात सना ज्यादा खुश नहीं थीं। हाल-चाल पूछने पर उसकी छोटी बहन ने कहा कि ये तो बहुत डरती है अपने ससुराल में। इतनी पढ़ी-लिखी,सरकारी नौकरी होने के बावज़ूद भी ये इतना दब कर और डर कर रहती हैं। मैं तो कभी ऐसे डर -डर कर न जियूँ। बहुधा सुनने को मिलता है कि महिलायें डरकर जीती हैं। मेरा मानना है किकिसी भी चीज़को खो देने का डर चाहे वह कोई वस्तु हो या सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति के मन में असुरक्षा या डर की भावना पैदा करता है।कोई भी महिला निजी स्वार्थ के लिएअपने संबंधों को दांव पर नहीं लगाती और इन्हें बचाने के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से पुरजोर प्रयत्न करती है।क्योंकि हमारे समाज में घर-परिवार को सुदृढ़ता देने की अपेक्षा सिर्फ महिला से की जाती है।इसी खूबी को एक महिला की कमजोरी समझ लियाजाताहैऔर जब भी हम अपनी कोई कमजोरी किसी भी रिश्ते में प्रकट करते हैं तभी उसका दुरूपयोग किया जाता है। आजकल की महिलायें शिक्षित होने के साथ-साथ बहुत समझदार भी हैं परन्तु शिक्षित होना और व्यावहारिक रूप से शिक्षा का उपयोग कर पाना दोनों अलग-अलग पहलू हैं। महिलायें आरम्भ से ही इस डर में जीतीं हैं कि अगर वह अपने हक़ के लिए आवाज उठाएंगी चाहे वह किसी भी क्षेत्र से सम्बंधित हो जैसे-शिक्षा,विवाह,संतान पैदा करना,काम करना आदि तो उनका अपने परिवार से रिश्ता ख़राब हो सकता है। महिलायें पल-पल रिश्तों के ख़राब होने के डर से जीतीं हैं। यह डर तभी समाप्त हो सकता है जब वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ आरम्भ से ही अपने निर्णय खुद लेना सीखें तथा पुरुषों को भी थोड़ा अपने अहं को परे कर अपनी माँ,बेटी,पत्नी व बहन को अपना जीवन अपने अंदाज में जीने की स्वतंत्रता देनी चाहिए।क्योंकि इन सब के अठ्ठाहसों से ही अपने चारों ओर जिंदगी का अहसास होता है। एक स्त्री के जीने का अंदाज़ ही उस समाज का प्रतिबिम्ब होता है।
"सब की परवाह करते-करते खुद से बेपरवाह हो गयी
देख ऐ जिंदगी ! मैं क्या से क्या हो गयी"