Tuesday, August 20, 2019


सफलता सिर्फ धन से नहीं, मान से भी आंकी जाती है

हम ऐसे समय में जी रह हैं जब सफलता के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं लगती है। आखिर सफलता की सीमा क्या है और कैसे जानेंगे कि आप सफल हुए या फिर सफलता की परछाईं ही टटोलत रह गए? शब्द की बनावट पर जाएं तो सफल का अर्थ फल से युक्त और असफल फल से विहीन है। 

फल की प्राप्ति के विषय में गीता का ज्ञान है कि फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाओ। वर्तमान में कई मायनों में यह अनुपयुक्त लगता है। आज जिसे देखिए वह फल प्राप्ति के उद्देश्य से ही कर्म करता है। जिसे वांछित फल नहीं मिलता है उसके द्वारा की गई कोशिश, उसके अनुभव के बारे में कोई पूछता तक नहीं। असफल लोगों के लिए समाज सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, उनके चरित्र का अनुकरण नहीं करता। 

आज के समय में यह मानना कठिन है कि सफलता पाने के बाद भी व्यक्ति सीमित संसाधनों में जीवन जी सकता है।क्योंकि सफलता की परिभाषा है लक्ष्मी, आलीशान गाड़ियां, बड़ा घर और जिनके पास यह सब नहीं है, वे बेशक स्वांत: सुखाय कार्य कर लें सफल तो किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकते।  

इस सोच के लोगों को गोस्वामी तुलसीदास पर विचार करना चाहिए। तुलसीदास ने जन-जन के नायक श्रीराम की कहानी को हर व्यक्ति के लिए सुलभ किया, पर वह सफलता की आधुनिक संकीर्ण परिभाषा पर खरे नहीं उतरते हैं। हालांकि उनकी कृति हर घर में विद्यमान है। सफलता की संकीर्ण परिभाषा के पचड़े में तुलसीदास पड़े ही नहीं। उनका कहना था कि उन्होंने स्वांत: सुखाय अर्थात अपने मन की प्रसन्नता के लिए कार्य किया। ऐसे व्यक्ति  का ध्यान कर्म की उत्कृष्टता पर रहता है, जो उसे अविस्मरणीय बना देती है।

 तुलसीदास की भांति इस प्रकार के कर्म को धन से सौगुणा कीमती वस्तु प्राप्त होती है जिसे मानकहते हैं।

 धन और मान के महत्व को आचार्य चाणक्य तीन श्रेणियों में बांटकर समझाते हैं। तीसरी यानी निम्न श्रेणी के लोग सिर्फ धन की कामना करते हैं और दूसरी श्रेणी के लोग धन और मान दोनों की चाहत रखते हैं।परंतु प्रथम यानी उत्तम श्रेणी  के व व्यक्ति मान यानी सम्मान को प्राथमिकता दते हैं। 

भगवद्गीता में कर्म के तीन प्रकार हैं- तामसिक, राजसिक और सात्त्विक। 

तामसिक व्यक्ति आवेश और क्रोधातिरक में कर्म करता है। उसके लिए फल सब कुछ है। अर्थात लक्ष्य के लिए चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े, वह तैयार रहता है। आमतौर पर इस लक्ष्य में पावर, पोजिशन (धन के अमूर्त रूप) पाने की कामना रहती है। 

सफलता नहीं मिलने अर्थात अपना उद्देश्य प्राप्त नहीं होने पर इन्हें दुख या अवसाद भी थोक के भाव में जकड़ता है क्योंकि असफलता को स्वीकार करने और आत्मसात करने के लिए आवश्यक साहस और विनम्रता दोनों का इनमें अभाव होता है। ऐसी सफलता जीवन का ध्येय नहीं हो सकती क्योंकि इसमें प्रसन्नता नहीं है। 

सफल शब्द में फलआता जरूर है, पर फल से पूर्व वृक्ष में पत्र , टहनियां और फूल भी आते हैं। इनके बिना वृक्ष पर फल की कल्पना नहीं हो सकती। वैस ही सफल होने के लिए धैर्य, साहस एवं विनम्रता तीनों जरूरी हैं । 

धैर्य असफलताओं को आत्मसात करता है। साहस असफलताओं पर बार-बार प्रहार करता है और विनम्रता सफलता को सिर नहीं चढ़ने दती।
 नंदकिशोर श्रीमाली