ये हमारे समाज की विडम्बना ही है कि जिन लोगों को हमने अपना प्रतिनिधी चुना वो आज हमारे रक्षक की बजाय भक्षक हो गए हैं। सभी एक दूसरे को खिलाने और बचाने की साजिशों में लगे हैं।
मुरादें मांगनें की जगहें अब क्या बन गयीं हैं। डर लगने लगा है।
कसूर हमारा ही है। जब हम अपने कर्तव्यों का सही रूप से इस्तेमाल नहीं करते तो हमारे हक़ भी स्वतः ही छिन जाते हैं।आज समाज के हर क्षेत्र में अयोग्य लोगों का बोल-बाला हो गया है।योग्यता का स्थान चापलूसी व रिश्वत ने ले लिया है।
देशभक्ति की भावना मन से मिट रही है। हर समस्या पर हम सरकार का मुहँ देखते हैं और वोट देने के समय चैन से घर में सो जाते हैं और अपने इस अधिकार का प्रयोग नहीं करते।अब जो प्रतिनिधी संसद में पहुंचे वो अपने अधिकारों का प्रयोग भली भांति कर रहे हैं।
जब भी निर्भया या कठुआ जैसी घटनाएं होती हैं जन- समूह उमड़ पड़ता है। ऐसी खबर पढ़कर मेरा मन व्यथित होता है और मैं अपने ग्लानि - बोध के कारण इन समूहों का हिस्सा बन जाता हूँ। हर पल उस बच्ची पर क्या बीती बखूबी महसूस किया और बैचनी है कुछ भी न कर पाने की। पर मेरा समाज में क्या योगदान है ? यह भी एक ज्वलंत प्रश्न है।
समस्याएं वहीं ज्यों की त्यों हैं। हवाएँ चलतीं हैं और हम उनमें बहते भी हैं। इंसानियत की हवा भी तभी चलेगी जब इंसान खुद चाहेगा। उसके लिये मन में दयाभाव, अन्तर्मन की सुनवाई तथा मानवता को झिंझोड़ने की आवश्यकता है। इंसानियत की खुशबू फिजाओं में तो है पर सबने महसूस करना ही बंद कर दिया है। इंसानियत शमर्सार है क्यों कि अब इंसान बेशर्म है। एक बार शर्म का लबादा उतर गया तो लबादे की औकात ही ख़त्म हो जाती है।
पर बहुत ही गहराई से ये सोचने की बात है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि आये दिन ये घटनाएं हो रही हैं। इन सबका कारण शायद समाज में संस्कारों की कमी, शिक्षा का अभाव, रोज़गार का न होना, कम समय में सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाना, गलत सही की पहचान न होना, नैतिक मूल्यों का अभाव व सबसे ही आवश्यक माता-पिता का बच्चों को समय न दे पाना तथा उचित मार्गदर्शन का अभाव होना है।
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मुरादें मांगनें की जगहें अब क्या बन गयीं हैं। डर लगने लगा है।
कसूर हमारा ही है। जब हम अपने कर्तव्यों का सही रूप से इस्तेमाल नहीं करते तो हमारे हक़ भी स्वतः ही छिन जाते हैं।आज समाज के हर क्षेत्र में अयोग्य लोगों का बोल-बाला हो गया है।योग्यता का स्थान चापलूसी व रिश्वत ने ले लिया है।
देशभक्ति की भावना मन से मिट रही है। हर समस्या पर हम सरकार का मुहँ देखते हैं और वोट देने के समय चैन से घर में सो जाते हैं और अपने इस अधिकार का प्रयोग नहीं करते।अब जो प्रतिनिधी संसद में पहुंचे वो अपने अधिकारों का प्रयोग भली भांति कर रहे हैं।
जब भी निर्भया या कठुआ जैसी घटनाएं होती हैं जन- समूह उमड़ पड़ता है। ऐसी खबर पढ़कर मेरा मन व्यथित होता है और मैं अपने ग्लानि - बोध के कारण इन समूहों का हिस्सा बन जाता हूँ। हर पल उस बच्ची पर क्या बीती बखूबी महसूस किया और बैचनी है कुछ भी न कर पाने की। पर मेरा समाज में क्या योगदान है ? यह भी एक ज्वलंत प्रश्न है।
समस्याएं वहीं ज्यों की त्यों हैं। हवाएँ चलतीं हैं और हम उनमें बहते भी हैं। इंसानियत की हवा भी तभी चलेगी जब इंसान खुद चाहेगा। उसके लिये मन में दयाभाव, अन्तर्मन की सुनवाई तथा मानवता को झिंझोड़ने की आवश्यकता है। इंसानियत की खुशबू फिजाओं में तो है पर सबने महसूस करना ही बंद कर दिया है। इंसानियत शमर्सार है क्यों कि अब इंसान बेशर्म है। एक बार शर्म का लबादा उतर गया तो लबादे की औकात ही ख़त्म हो जाती है।
पर बहुत ही गहराई से ये सोचने की बात है कि ऐसा क्यों हो रहा है कि आये दिन ये घटनाएं हो रही हैं। इन सबका कारण शायद समाज में संस्कारों की कमी, शिक्षा का अभाव, रोज़गार का न होना, कम समय में सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाना, गलत सही की पहचान न होना, नैतिक मूल्यों का अभाव व सबसे ही आवश्यक माता-पिता का बच्चों को समय न दे पाना तथा उचित मार्गदर्शन का अभाव होना है।
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