ऑस्ट्रेलिया के १०४ वर्षीय वैज्ञानिक डेविड गुडाल ने इच्छा मृत्यु के कानून का लाभ उठाते हुए स्विट्ज़रलैंड में अंतिम सांस ली। डेविड का कहना था कि अब उनकी जिंदगी में कोई ईच्छा नहीं बची और कुछ ख़ास करने योग्य भी बचा नहीं है। वह भरपूर जीवन जी चुके हैं। इस निर्णय में उनका परिवार भी उनके साथ था। क्या इस उम्र में डेविड की मानसिक स्थिति इतनी अच्छी रही होगी कि वह यह निर्णय ले सके? कुछ विशेष परिस्थितियों में शायद ऐसा आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति को पीड़ादायक जीवन से निजात दे दी जाये। लेकिन भारतीय परिवारों में ये व्यवस्था गले नहीं उतरती। हमारे यहाँ बुजुर्गों का परिवार में एक विशेष स्थान है। हम भारतीय भावनात्मक रूप से अपने परिवार से जुड़े होते हैं और शायद ये प्रक्रिया हमें निर्मम लगती है। स्वाभाविक रूप से अपने शरीर को छोड़ना ही पंच -तत्वों में विलीन होना माना जाता है। अन्य कोई और प्रक्रिया हमारे समाज में स्वीकार्य नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है जब इंसान कहता है कि यह मेरी जिंदगी है मैं इसे जैसे चाहे जियूं इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है। तो फिर तो साँसें भी उसी की है और उसी का अधिकार है कि वह अपनी अंतिम सांस भी जैसे चाहे वैसे ले।
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